कहानी संग्रह >> पाकिस्तानी कहानियाँ पाकिस्तानी कहानियाँअब्दुल बिस्मिल्लाह
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"जो साहित्य है, वह बंद मकान नहीं होता : पाकिस्तानी कहानी के दृष्टिकोण से विभाजन और समाजिक परिवर्तनों का अध्ययन"
साहित्य में क़ौम या दृष्टिकोण के हवाले से क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, इससे हटकर अगर हम पाकिस्तानी कहानी पर नज़र डालें और उसके परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य को समेटने की कोशिश करें, तो एक मोटी-सी बात यह नज़र आएगी कि विभाजन के फौरन बाद जो समाज अस्तित्व में आया और जो पिछले पचास बरसों में विकसित हुआ, वह भारत-विभाजन से पहले वाला साझा समाज नहीं था। अब वहाँ मुसलमान बहुसंख्यक थे। इसलिए वहाँ सामाजिक कार्य-व्यापार हिंदुस्तान से भिन्न रूप से चला। फिर राजनीतिक कार्य-व्यापार का रूप भी इसी एतबार से अलग हो गया कि वहाँ लोकतंत्रीय व्यवस्था लगातार नहीं रही। मार्शल लॉ बीच-बीच में आकर इस व्यवस्था पर आघात करता रहा।
दरअसल पाकिस्तान बनने के फौरन बाद वहाँ लिखने और सोचनेवालों का ऐसे सवालों से साबक़ा पड़ा, जो पाकिस्तान से जुड़े थे। हिंदुस्तान के लिखनेवालों का उनसे साबक़ा कैसे पड़ता, जहाँ इतिहास और परंपरा की निरंतरता बरक़रार थी। वहाँ यह निरंतरता टूट गई थी। फिर इस क़िस्म के सवाल खड़े हुए कि अगर यह एक अलग कौम है; तो इसकी क़ौमी और तहजीबी शिनाख्त क्या है ? इसका इतिहास कहाँ से शुरू होता है ? भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की ओर से जो ऐतिहासिक व्यवस्था शुरू हुई, वह तो ठीक है, मगर उस इलाक़े का जो प्राचीन इतिहास है, वह उसका इतिहास है या नहीं? और हिंदुस्तान में मुसलमानों का जो इतिहास बिखरा पड़ा है, उसका इससे अब क्या संबंध है ? आखिर उसकी जड़ें कहाँ हैं ? इन सवालों से और दूसरे सवालों के आइने में पाकिस्तानी कहानी की जो अलग शक्ल नजर आती है, उसे अच्छी तरह जानने और मानने के बाद भी हमें जो बात याद रखनी चाहिए, वह यह कि साहित्य कोई बंद मकान नहीं होता।
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